आज सच नहीं लगता
सच में आज सच नहीं लगता। बात उन दिनों की कर रहा हूँ जब दाँतों के डॉक्टर बहुत कम हुआ करते थे। सामान्य डॉक्टर ही दांतों का इलाज किया करते थे। लेकिन दाँतों के डॉक्टर अलग होने लगे जिन्हें डेंटिस्ट कहते थे। लेकिन वे पूरे शहर में एक दो ही हुआ करते। डॉ. त्रिवेदी ऐसे डेंटिस्ट थे कि उनके अलावा सरकार अस्पताल में भी कोई नहीं था। बहुत बड़ ंंक्षेत्र में अकेले। काले भुजंग, लंबी चौड़ी देह यष्टि, बड़ी बड़ी आँखें। जब सडासी हथौडी जैसे औजार मेज पर रखते तो अच्छे अच्छे मरीजों की घिग्घी बंध जाती। वे प्यार से समझाते कि कुछ नहीं होगा परंतु उनकी बड़ी बड़ी आँखें और बड़े बड़े दाँत उनके वचनों से मेल नहीं खाते। पर कहते हैं न कि दाँत के दर्द से बड़ा कोई दर्द नहीं है। दाँत जब दुखते तो डॉ. त्रिवेदी की शरण के अलावा कोई चारा ही नहीं था। कॉमरेड मि. श्रीवास्तव सरकारी अफसर होते हुए भी अपने आप को कॉमरेड कहलाना बहुत पसंद करते थे। कायदे कानून के बहुत अच्छे जानकार, निर्भीक तो वे थे ही, किसी से नहीं डरते थे। न उच्च अधिकारियों से न यूनियन के नेताओं से। नियम की व्याख्या करने में उनसे बड़ा कोई नहीं था। किसी की मानते भी नहीं